रोज़े के दौरान जिस्म का रद्दे अमल
रोज़े के दौरान जिस्म का रद्दे अमल रमजान उल मुबारक - 1445 हिजरी रोजा और इंसानी जिस्म ,,,,,खैरागढ़ छुईखदान गंडई,,,, पहले दो रोज़े पहले ही दिन ब्लड शुगर लेवल गिरता है यानी ख़ून से चीनी के ख़तरनाक असरात का दर्जा कम हो जाता है।
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रोज़े के दौरान जिस्म का रद्दे अमल
रमजान उल मुबारक - 1445 हिजरी
रोजा और इंसानी जिस्म
,,,,,खैरागढ़ छुईखदान गंडई,,,,
पहले दो रोज़े
पहले ही दिन ब्लड शुगर लेवल गिरता है यानी ख़ून से चीनी के ख़तरनाक असरात का दर्जा कम हो जाता है।
दिल की धड़कन सुस्त और ख़ून का दबाव कम हो जाता है। नसें ग्लाइकोजन आज़ाद कर देती हैं जिसकी वजह से जिस्मानी कमज़ोरी का एहसास होने लगता है। ज़हरीले माद्दों की सफ़ाई के पहले मरहले के नतीज़े में सर दर्द, सर का चकराना, मुंह का बदबूदार होना और ज़बान पर मवाद जमा होने लगता है।
तीसरे से सातवें रोज़े तक
रोजा और इंसानी जिस्म
जिस्म की चर्बी टूट-फूट का शिकार होती है और पहले मरहले में ग्लूकोज में बदल जाती है। कुछ लोगों में चमड़ी मुलायम और चिकनी हो जाती है। जिस्म भूख का आदी होना शुरु हो जाता है और इस तरह सालभर मसरूफ़ रहने वाला हाज़मा सिस्टम छुट्टी मनाता है।
ख़ून के सफ़ेद जरासीम और इम्युनिटी (रोग प्रतिकार शक्ति) में बढ़ोतरी शुरू हो जाती है, हो सकता है, रोज़ेदार के फेफड़ों में मामूली तकलीफ़ हो, इसलिए कि ज़हरीले माद्दों की सफ़ाई का काम शुरू हो चुका है। आंतों और कोलोन की मरम्मत का काम शुरू हो जाता है। आंतों की दीवारों पर जमा मवाद ढीला होना शुरू हो जाता है।
आठवें से पंद्रहवें रोज़े तक
आप पहले से चुस्त महसूस करते हैं। दिमाग़ी तौर पर भी चुस्त और हल्का महसूस करते हैं, हो सकता है कोई पुरानी चोट या ज़ख़्म महसूस होना शुरू हो जाए। इसलिए कि आपका जिस्म अपने बचाव के लिए पहले से ज़ियादा एक्टिव और मज़बूत हो चुका होता है। जिस्म अपने मुर्दा सेल्स को खाना शुरू कर देता है। जिनको आमतौर से केमोथेरेपी से मारने की कोशिश की जाती है। इसी वजह से सेल्स में पुरानी बीमारियों और दर्द का एहसास बढ़ जाता है। नाड़ियों और टांगों में तनाव इसी अमल का क़ुदरती नतीजा होता है जो इम्युनिटी के जारी अमल की निशानी है।
सोलहवें से तीसवें रोज़े तक
रोजा और इंसानी जिस्म
जिस्म पूरी तरह भूख और प्यास को बर्दाश्त करने का आदी हो चुका होता है। आप अपने आप को चुस्त, चाक व चौबंद महसूस करते हैं।
इन दिनों आप की ज़बान बिल्कुल साफ़ और सुर्ख़ हो जाती है। सांस में भी ताज़गी आ जाती है। जिस्म के सारे ज़हरीले माद्दों का ख़ात्मा हो चुका होता है, हाज़में के सिस्टम की मरम्मत हो चुकी होती है। जिस्म से फ़ालतू चर्बी और ख़राब माद्दे निकल चुके होते हैं। बदन अपनी पूरी ताक़त के साथ अपने फ़राएज़ अदा करना शुरू कर देता है।
बीस रोज़ों के बाद दिमाग़ और याददाश्त तेज़ हो जाती हैं। तवज्जो और सोच को मरकूज़ करने की सलाहियत बढ़ जाती है। बेशक बदन और रूह तीसरे अशरे की बरकात को भरपूर अंदाज़ से अदा करने के क़ाबिल हो जाते हैं।
यह तो रहा दुनिया का फ़ायदा, जिसे बेशक हमारे ख़ालिक़ अल्लाह रब्बुल इज़्ज़त ने हमारी ही भलाई के लिए हम पर वाजिब किया। मगर देखिए उसका अंदाज़े करीमाना कि उसके एहकाम मानने से दुनिया के साथ-साथ अल्लाह ने हमारी आख़िरत संवारने का भी बेहतरीन बंदोबस्त कर दिया।