9 जनवरी 1953 के शहीदों का बलिदान धुंधला हो रहा

9 जनवरी 1953 के शहीदों का बलिदान धुंधला हो रहा (द फायरिंग इज अनजस्टिफाईड पर आज तक मरहम नही लगा सकी राजनैतिक ताकतें ) शहीद नगरी अपनी अस्तित्व की लड़ाई सात दशक से लड़ रही वीरांगना रमशीर,,, भूलीन,,, कचरा बी को सदैव याद रखेंगे नगरवासी पंडित बैकुंठ प्रसाद और द्वारका प्रसाद की गाथा जनजन मेँ विराजमान

9 जनवरी 1953 के शहीदों का बलिदान धुंधला हो रहा

            9 जनवरी 1953 के शहीदों का बलिदान धुंधला हो रहा  

 (द फायरिंग इज अनजस्टिफाईड पर आज तक मरहम नही लगा सकी राजनैतिक ताकतें )

शहीद नगरी अपनी अस्तित्व की लड़ाई सात दशक से लड़ रही

 वीरांगना = रमशीर,,, भूलीन,,, कचरा बी को सदैव याद रखेंगे नगरवासी

पंडित बैकुंठ प्रसाद और द्वारका प्रसाद की गाथा जनजन मेँ विराजमान 

छुईखदान-=- जी हां यह कोई किसी कहानी का उपसंहार नही है,यह शब्द और लेख 9 जनवरी सन् 1953 केा हुए स्वतंत्र भारत के लगभग प्रथम गोलीकांड के बाद नगर के लिए शहीदों की मौत की जांच के लिए तत्कालीन म.प्र.सरकार की ओर से उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीष श्रीमान वी.के.चौधरी को जांच की जवाबदारी सौंपी और अपनें मत की जवाबदारी सौंपी गई थी,और उक्त जांच के प्रतिवेदन मे श्री चौधरी के अंतिम शब्द थे-द फायरिंग वाज अनजस्टिफाईड.

  अब सवाल यह उठता है कि जब फायरिंग ही अनजस्टिफाईड थी?तो सरकार की ओर से अपनी गलती सुधारनें और पीड़ीत परिवार को राहत देनें की दिशा में सरकारों का क्या योगदान रहा,क्या अनजस्टिाफाईड फायरिंग में मारे गए लोगों को शहीदों का दर्जा मिल सका? ज्ञात है की उक्त गोलिकांड ने छुईखदान शहर ने पांच सपूत स्व, द्वारिका प्रसाद स्व, बैकुंठ प्रसाद स्व,रमशीर बाई स्व,भूलीन बाई स्व,कचरा बी को खो दिया,अपने लिए नही बल्कि छुईखदान नगर व क्षेत्र के अस्तित्व के लिए अपनी जान गवां दिए। 

,,आजादी के सत्तर साल बाद भी गौरव वापस नही आ सका--

(जैसा कि नगर के लोग स्थानीय भाषा मे एैसा कहते हैं)एैसे कई सवाल हैं जिनका जवाब की प्रतीक्षा पिछले सात दशक से नगर व क्षेत्र के लोगों को इस बीच आए और गए सरकारों से है,परन्तु खेद कि वह सरकारें आई और गईं पर जवाब आज तक नही आ सका,राजनैतिक जलन,वर्चस्व की परोक्ष लड़ाई और दूसरे को मिटा देनें की सोंच के चलते एवं उस समय के सामंती लोगों के सरकारों में होनें व साथ ही शक्तिशाली होनें के चलते भय व प्रलोभन मे आकर किसी नें भी उस अन्यायपूर्ण गोलीकांड के खिलाफ न तो ठीक से आवाज ही बुलंद की और न ही किसी प्रकार के राहत की पैरवी की,परिणाम साफ था कि इस नगर के लिए मरनें वालों की चिताओं पर हर बरस सिर्फ मेले ही लगते है इससे ज्यादा शायद कुछ भी नही,आज भी तथाकथित रसूखदार कहलाने वाले कुछ लोग इस शहर के गौरव वापस लाने की बात पर नाक भौं सिकोड़ते नजर आते है कि दूर बैठे उनके आका नाराज न हो जाए,

  आज यदि वही गोली कांड किसी दूसरे शहर मे हुआ होता और नगर के पांच क्या एक भी सपूत मारा जाता तो विधानसभा मे बवाल खड़ा हो जाता,पीड़ीत परिवारों पर मुआवजे और मरहम की बरसात हो जाती,सत्ता,शासन, प्रशासन मे गौरवशाली स्थान अनंत काल के लिए सुरक्षित हो जाता,सरकारी स्कूल, कार्यालय, चौक चौराहे,सब उनके नाम होकर छुट्टीया घोषित होकर विकास की बरसात जाती,आज यह सबके सामनें है,इसी शहर के आसपास के शहरों मे दर्जन भर उदाहरण हैं कही बाढ़ आ गया,रेल टकरा गए,बिजली गिर गई,भूकंप आ जाए तो दिल्ली से लेकर रायपुर तक शासन और सत्ता मरहम और पटटी लेकर दौड़ पड़ते है,दूसरी तरफ आज से लगभग सत्तर बरस पूर्व अपनें नगर की सुविधाओं की रक्षा मे जान गवांनें वालों की तरफ किसी का भी ध्यान नही जाता,यहां यह बताना भी न्याय होगा कि अब तो उन शहीदों के परिवार मे कौन-कौन जिदा बचा स हैं,वे अपना जीवन यापन कैसे कर रहे है,उसे भी यहां के लोग लगभग भूल से गए है और जब अपनें ही भूलनें लगे तो फिर रायपुर और दिल्ली से क्या उम्मीद की जा सकती है,जबकि उन परिवारो को आज भी देखा जाए तो निश्चित ही सरकारी मदद की दरकार है,शासन की ओर से वर्तमान स्थिति मे उन पीड़ीत परिवारों का सुधि लेना व नगर के विकास मे अपना सहयोग देनें से ही कुछ पीड़ा कम हो सकेगी। यह लेख उस समय और स्थान से उपजी है जब देश की स्वतंत्रता में पूरे देश के कदम से कदम मिलाकर चलते हुए इस नगर के स्वतंत्रता संग्राम के सैकड़ों सेनानियों नें अंग्रेजी यातनाएं सहते हुए अपना योगदान दिया था,जबकि दूसरे अन्य शहरो मे आजादी का शंखनाद भी नही हुआ था,पुरूस्कार स्वरूप छुईखदान नगर के लोग स्वतंत्र भारत में देश अन्य 562 देशी रियासतों के राष्ट्रवादी रियासतो के समान ही अपना रियासत निःशर्त भारत संघ मे बिना कुछ किए विलीन किया था, उस समय यह नगर विधानसभा मुख्यालय बन गया था,यहां पर रियासतकालीन अनेंको सरकारी दफ्तरों को लगभग यथावत रखा गया था,जिसके तहत छुईखदान एवं गण्डई राजस्व क्षेत्र के लोगों का सारा काम छुईखदान स्थित पूर्ण तहसील मे ही संपन्न हो जाता था,विधानसभा का मुख्यालय भी लगभग यहीं रह गया था,जनप्रतिनिधिगण भी अमूमन ईधर से ही निर्वाचित होनें लगे थे, साथ ही कोषालय की सेवाएं भी निर्बाध रूप से प्राप्त हो रही थी,यही बात सत्ता और सरकार मे ऊंची पैठ रखनें वालों को नागवार गुजरा और इस हंसती खेलती प्रशासनिक व्यवस्था से लबरेज शहर की सुविधाओ को खंडित करनें का पहला कुदाल चलाया गया कि यहां स्थित कोषालय को अन्यत्र स्थानांन्तरित करनें का कुचक्र चलाया गया,नगर व क्षेत्र की जनता अपनी सुविधा का स्थानांन्तरण के विरूद्ध खड़ी हो गई,

                       जनता और शासन के मध्य बैठे कुछ क्षेत्रीय रसूखदार राजनितिज्ञों की ओर से राज्य प्रमुख तक भ्रामक जानकारी व सूचनाएं पहुंचानें का काम बखूबी किया जानें लगा,एैसे लोगों की ओर से उक्त कार्यालय के स्थानांन्तरण को शासन के स्वाभिमान से जोड़नें का भी काम बखूबी किया गया,जनता उद्देलित हो उठी थी,नगर में धारा 144 लागू कर दी गई थी,

        

         अंततः वह दिन भी आया जब 9 जनवरी 1953 का सूरज इस नगर के महाविनाश का संदेश लेकर आया, सरकारी बंदूकों के मुह खेाल दिए गए,और देखते ही देखते नगर के पांच सपूत शहीद हो गए। 

  उक्त घटना की निंदा चहुंओर हुई थी,परन्तु कुछ लोगों के घरों पर घी के दीपक भी जलाए जा रहे थे,छुईखदान को बर्बादी की ओर धकेलनें में जो वो सफल हो गए थे,कुछ नें तो इस घटना को दूसरा जलियांवाला कांड से तुलना की थी,एैसी विषम समय में तत्कालीन मुख्यमंत्री पं.रविशंकर शुक्ल जी मरहम का पात्र लेकर आए और इस नगर को विकासखंड मुख्यालय का दर्जा भरी सभा में दिया था,उस सभा में भी बर्बादी के वे कुपात्र उपस्थित थे जिनकी ओर से पंडित जी के उस निर्णय पर आश्चर्य व्यक्त किया गया था।परन्तु पंडित जी जान गए थे कि उन्हे अंधेरे में रखकर किया गया है,तब से लेकर आज तक यह नगर व क्षेत्र अपनें वाजिब विकास के लिए छटपटा रहा है,क्योंकि इसी के बराबरी वाले अन्य शहरों को चहुंओर से जोड़ानें के लिए करोंडों अरबों रूपए सिर्फ रोड निर्माण में खर्च किए जा रहे हैं,शासकीय कार्यालयों की तो झड़ी सी लग गई है,सिंचाई,सड़क,शिक्षा,चिकित्सा,जैसी मूलभूत सुविधाओं को प्राप्त करनें में वे रियासत छुईखदान से लगभग पच्चीस बरस आगे चल रहे हैं,और यहां सभी राजनैतिक दलों के तथाकथित झंडाबरदारों के बारंबार उनकी ड्योड़ी पर नाक रगड़नें के बाद भी न केवल राजनैतिक कमजोर इच्छा शक्ति को स्पष्ट करता है अपितु उस नापाक सोंच को भी साबित करता है जो 9 जनवरी 1953 के समय था।

    नगर में पूर्ण तहसील एवं कोषालय की मांग उस समय के आवश्यकता के अनुरूप वाजिब था आज के परिप्रेक्ष्य में वर्तमान आवश्यकताएं और मांग ही वाजिब है,साथ ही पीड़ीत परिवारों को उचित मुआवजा व सुविधा देकर की अपनी भूल का प्रायश्चित होगा।                     

              ,,,,,नहीं मिल पाया नगर पालिका का दर्जा,,,,,

छुईखदान नगर पंचायत आज अपनी पुरानी मांगो को लेकर लागिर हो गया आज छुईखदान नगर पंचायत जो कभी 1922 मेँ नगर पालिका हुआ करता था, जिसे पंचायती राज अधिनियम के तहत नगर पंचायत बना दिया गया, नगर वासी नगर पालिका की आशीर्वाद लगाए बैठे रह और शताब्दी वर्ष 2022 भी गुजर गया, जिसे लेकर उप चुनाव से लेकर सभी नेताओ के सामने आवेदन की झड़ी परोसने के बाद आज इस शहीद को नगर पालिका का दर्जा वापस नहीं मिल सका l 

       

                   ,,,, उंठ के मुंह मेँ जीरा जैसा विकास,,,,,    

 

   छुईखदान के युवाओं मेँ देश की आजादी के लिए जो जज्बा उन्माद उस जमाने मेँ था अथवा क्षेत्र के युवाओं ने जो दमखम दिखाया था उसे लेकर तो क्षेत्रवासी इस नगर के विकास मेँ बड़ी बड़ी उम्मीदों को अपनी सपनो मेँ सजोये रखते थे, और वो अनजान थे देश की आजादी के बाद इस शहर को जख्म मिलेगा जो जिंदगी भर के लिए घाव बना देगा आज भले ही छुईखदान से लेकर बकरकट्टा मार्ग,छुईखदान से उदयपुर,बुन्देली होकर धमधा मार्ग बन रहें है जो इस छेत्र के विकास के लिए उंठ के मुंह मेँ जीरा के समान है l

 

             ,,जिले निर्माण के बाद उम्मीद की किरण जगी है,,

             

     वैसे छुईखदान क्षेत्र के लोगों ने बगैर मौके गंवाए जब भी कोई मंत्री या नेता इस क्षेत्र के दौरे पर आए तो उनसे मिलकर अपनी नगर एवं क्षेत्र के विकास के लिए मिलकर प्रयास करते रहे हैं।लेकिन आज पर्यंत तक कोई कार्य का आगे नहीं बढ़ना समझ से परे है। लेकिन पिछले बरस हुए उप चुनाव के बाद तात्कालिन मुख्यमंत्री भूपेश बघेल की घोषणा से उम्मीद की किरण जगी है। खैरागढ़ छुईखदान गण्डई मिलकर जिला बना है लेकिन यह भी।जिले में आने वाले समय पर शासकीय कार्यालय ,पदो और कार्यालय स्वीकृत होना है। जिसमें छुइर्दखदान में भी कुछ कार्यालय मिलने की उम्मीद जगी हुई हैं। जिसमें नगर वासी अब उन दिनों का इंतजार कर रहे हैं। कि छुईखदान में भी जिला स्तर का कार्यालय खुलेगा,यह समय के गर्भ मे है परन्तु जिस तरह से जैसे भी हो अपनी ओर समेटने की जो परंपरा चल पडी है उसे देखते हुए उम्मीद की किरण बहुत पतली है,क्योकि ड्योड़ी पर नाक रगड़नें वाले कल भी थे और बडे खेद के साथ कहना पड़ता है कि वे आज भी हैं। नवीन जिले का नक्शा उठाकर देखा जा सकता कि संपूर्ण जिले के मध्य मे यह पीडीत प्रताडित सेवादारो भक्तो मजदूर किसानो से भरा धर्म-परायण शहर आज भी किसी मुकुट मे मणी जडने की प्रतीक्षा मे है जिसके बगैर किसी भी मुकुट की कोई शोभा नही है,पुरानी पीढ़ी गुजर गई है, कुछ गुजरने को तैयार है पर विरासत मे एक आस देकर जा रही है कि आज नही तो कल हमारी वर्षों पुरानी मांग पूरी होगी,,

शहीदो की चिताओ पर लगेंगे हर बरस मेले ।

वतन पर मरने वालो का बस यही बाकी निशां होगा।